Sunday, November 24, 2013

अमौसा (अमावस्या/कुंभ) के मेला

*(जब अमौसा का अर्थात अमावश्या का  जिसे कुंभ मेला भी कहते हैं लगने वाला होता है तो श्रद्धालुओं का उत्साह कुछ इस प्रकार का होता है...)

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

भक्ति के रंग में रंगल गाँव देखा,
धरम में, करम में, सनल गाँव देखा.
अगल में, बगल में सगल गाँव देखा,
अमौसा नहाये चलल गाँव देखा.

एहू हाथे झोरा, ओहू हाथे झोरा,
कान्ही पर बोरा, कपारे पर बोरा.
कमरी में केहू, कथरी में केहू,
रजाई में केहू, दुलाई में केहू.

आजी रँगावत रही गोड़ देखऽ,
हँसत हँउवे बब्बा, तनी जोड़ देखऽ.
घुंघटवे से पूछे पतोहिया कि, अईया,
गठरिया में अब का रखाई बतईहा.

एहर हउवे लुग्गा, ओहर हउवे पूड़ी,
रामायण का लग्गे ह मँड़ुआ के डूंढ़ी.
चाउर आ चिउरा किनारे के ओरी,
नयका चपलवा अचारे का ओरी.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

*(इस गठरी और इस व्यवस्था के साथ गाँव
का आदमी जब गाँव के बाहर रेलवे स्टेशन पर
आता है तब क्या स्थिति होती है ?)

मचल हउवे हल्ला, चढ़ावऽ उतारऽ,
खचाखच भरल रेलगाड़ी निहारऽ.
एहर गुर्री-गुर्रा, ओहर लुर्री-लुर्रा,
आ बीचे में हउव शराफत से बोलऽ

चपायल ह केहु, दबायल ह केहू,
घंटन से उपर टँगायल ह केहू.
केहू हक्का-बक्का, केहू लाल-पियर,
केहू फनफनात हउवे जीरा के नियर.

बप्पा रे बप्पा, आ दईया रे दईया,
तनी हम्मे आगे बढ़े देतऽ भईया.
मगर केहू दर से टसकले ना टसके,
टसकले ना टसके, मसकले ना मसके,

छिड़ल ह हिताई-मिताई के चरचा,
पढ़ाई-लिखाई-कमाई के चरचा.
दरोगा के बदली करावत हौ केहू,
लग्गी से पानी पियावत हौ केहू.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

*(इसी भीड़ में गाँव का एक नया जोड़ा,
साल भर के अन्दरे के मामला है,
वो भी आया हुआ है. उसकी गती से
उसकी अवस्था की जानकारी हो जाती है
बाकी आप आगे देखिये…)

गुलब्बन के दुलहिन चलै धीरे धीरे
भरल नाव जइसे नदी तीरे तीरे.
सजल देहि जइसे हो गवने के डोली,
हँसी हौ बताशा शहद हउवे बोली.

देखैली ठोकर बचावेली धक्का,
मने मन छोहारा, मने मन मुनक्का.
फुटेहरा नियरा मुस्किया मुस्किया के
निहारे ली मेला चिहा के चिहा के.

सबै देवी देवता मनावत चलेली,
नरियर प नरियर चढ़ावत चलेली.
किनारे से देखैं, इशारे से बोलैं
कहीं गाँठ जोड़ें कहीं गाँठ खोलैं.

बड़े मन से मन्दिर में दर्शन करेली
आ दुधै से शिवजी के अरघा भरेली.
चढ़ावें चढ़ावा आ कोठर शिवाला
छूवल चाहें पिण्डी लटक नाहीं जाला.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

*(इसी भीड़ में गाँव की दो लड़कियां,
शादी वादी हो जाती है, बाल बच्चेदार
हो जाती हैं, लगभग दस बारह बरसों के बाद
मिलती हैं. वो आपस में क्या बतियाती हैं
…)

एही में चम्पा-चमेली भेंटइली.
बचपन के दुनो सहेली भेंटइली.
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें,
दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें.

असो का बनवलू, असो का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो ना अबतक पठवलू.
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं.

हमैं अपना सासु के पुतरी तूं जानऽ
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जानऽ.
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की.

मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो
भया तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो.
साधु छुड़ावैं सिपाही छुड़ावैं
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावै.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

*(कभी-कभी बड़ी-बड़ी दुर्घटनायें
हो जाती हैं. मैंने कई छोटी-छोटी घटनाओं
को पकड़ा. जहाँ जिन्दगी है, मौत नहीं है.
हँसी है दुख नहीं है….)

करौता के माई के झोरा हेराइल
बुद्धू के बड़का कटोरा हेराइल.
टिकुलिया के माई टिकुलिया के जोहै
बिजुरिया के माई बिजुरिया के जोहै.

मचल हउवै हल्ला त सगरो ढुढ़ाई
चबैला के बाबू चबैला के माई.
गुलबिया सभत्तर निहारत चलेले
मुरहुआ मुरहुआ पुकारत चलेले.
छोटकी बिटउआ के मारत चलेले
बिटिइउवे प गुस्सा उतारत चलेले.

अमौसा के मेला अमौसा के मेला.

*(बड़े मीठे रिश्ते मिलते हैं.)

गोबरधन के सरहज किनारे भेंटइली.
गोबरधन का संगे पँउड़ के नहइली.
घरे चलतऽ पाहुन दही गुड़ खिआइब.
भतीजा भयल हौ भतीजा देखाइब.
उहैं फेंक गठरी, परइले गोबरधन,
ना फिर फिर देखइले धरइले गोबरधन.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

*(अन्तिम पंक्तियाँ हैं. परिवार
का मुखिया पूरे परिवार को कइसे लेकर के
आता है यह दर्द वही जानता है. जाड़े के दिन
होते हैं. आलू बेच कर आया है कि गुड़ बेच कर
आया है. धान बेच कर आया है, कि कर्ज लेकर
आया है. मेला से वापस आया है. सब लोग
नहा कर के अपनी जरुरत की चीजें खरीद कर
चलते चले आ रहे हैं. साथ रहते हुये
भी मुखिया अकेला दिखाई दे रहा है….)

केहू शाल, स्वेटर, दुशाला मोलावे
केहू बस अटैची के ताला मोलावे
केहू चायदानी पियाला मोलावे
सुखौरा के केहू मसाला मोलावे.

नुमाइश में जा के बदल गइली भउजी
भईया से आगे निकल गइली भउजी
आयल हिंडोला मचल गइली भउजी
देखते डरामा उछल गइली भउजी.

भईया बेचारु जोड़त हउवें खरचा,
भुलइले ना भूले पकौड़ी के मरीचा.
बिहाने कचहरी कचहरी के चिंता
बहिनिया के गौना मशहरी के चिंता.

फटल हउवे कुरता टूटल हउवे जूता
खलीका में खाली किराया के बूता
तबो पीछे पीछे चलल जात हउवें
कटोरी में सुरती मलत जात हउवें.

अमौसा के मेला, अमौसा के मेला.

-कैलाश गौतम

Tuesday, November 19, 2013

गंगा और जीवन!!

शाम जो गंगा किनारे बैठा तो ख़्याल आया,
गंगा की लहरें जिंदगी जैसी ही तो हैं,
तेज लहरों जैसी कभी मुश्किलें आतीं हैं,
तो कभी शांत प्रवाह सा जिन्दगी बहती है।

जैसे बरखा आने पे गंगा बलखाती है,
वैसे खुशियां आने पे जिन्दगी इठलाती है,
गंगा की गहराइयों की कोई माप नहीं,
जिन्दगी के झंझावातों की भी कोई परिमाप नहीं।

गंगा का विस्तार कम हो जाता है गरमियों में,
जिन्दगी झुलस जाती है दुख के दिनों में,
जरा गौर से देखें तो,
कितनी मिलती कहानी है गंगा और जीवन की,
उतार चढ़ाव के बाद भी,
दोनों की फितरत है बढ़ते रहने की।

Wednesday, October 16, 2013

रावण दहन कब तक, और भी तो बहुत कुछ है जलाने के लिए

आखिर कब तक रावण को हम मारते रहेंगे? हम हमेशा सोचते हैं
कि आखिर रावण को हर वर्ष क्यूं मारना होता है?
वो पूर्णतया मरता क्यूं नहीं? आखिर क्यों वो प्रत्येक वर्ष उठ
खड़ा होता है?



मित्रों दरअसल हम हम एक मरे हुए को प्रतिवर्ष मारते हैं। जो मर चुका है
उसे हर बार मारने से क्या होगा? दरअसल हम प्रत्येक वर्ष रावण का वध
नहीं करते अपितु अपने भ्रम का वध करते हैं और इस भ्रम का वध कर हम खुश
हो जाते हैं।



मूल तथ्य यह नहीं है कि हम रावण को कब तक मारते रहेंगे मूल तथ्य यह है
कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हर वर्ष हम एक मरे हुए को मार कर खुश
हो जाते हैं और रावण का ओट लेके वास्तव में विद्यमान
राक्षसी ताकतें बची रह जातीं हैं और वो दिन ब दिन विकराल रूप
लेती जा रहीं और हम हैं कि उनकी तरफ ध्यान ना दे के
अपना सारा ध्यान रावण पे लगाए हुए है।

सदियों से हम रावण को मारते आ रहे और खुशी मनाते आ रहे परन्तु हम ये
भूल जाते हैं कि दशानन का वध तो भगवान राम ने स्वयं किया था,
और जिसका वध विष्णुरूपी राम ने किया हो उसका जीवित
बचना सम्भव है क्या? अगर उत्तर हां मे है तो रामायण का वह श्लोक
गलत है जिसमें कहा गया है कि पाप का नाश करने के लिए विष्णु ने
राम रूप मे अवतार लिया था क्योंकि अगर राम पूर्णरूपेण रावणवध वध
नहीं कर सके थे तो उनका अवतार लेना व्यर्थ गया। और अगर उत्तर
हां है कि राम ने रावण का वध कर दिया था और वह परमधाम
को प्राप्त हो चुका है तो हम प्रतिवर्ष उसे क्यों मारते हैं? क्यों हम
अपने आप को दिलाशा देते हैं कि रावण को मार दिया गया है?

क्या हमें कौशल्यानन्दन राम पर भरोशा नहीं? क्या हमें उनके पराक्रम
पर शक है?

मित्रों दरअसल हम भगवान राम के संदेश को समझ ही नहीं पाए।
उन्होने हमें संदेश दिया कि मैं रावणरूपी असुर का तथा अन्य
आसुरी ताकतों का विनाश कर रहा हूं और आप लोगो पर ये
जिम्मेदारी छोड़ के जा रहा हूं कि आप लोग अब फिर से
पापियों को पनपने मत दीजिएगा उनका संहार करते रहिएगा। परन्तु
हम लोग उनके संदेश को या तो समझने में नाकाम रहे या जानबूझ के
नासमझ बने रहे तथा प्रत्येक वर्ष एक मरे हुए को मारकर खुशी मनाते रहे
तथा हम इतने नासमझ बने रहे कि कभी सर उठा के ये देखने की कोशिश
भी नहीं की कि कहीं कोई और दैत्य तो नहीं उठ खड़ा हुआ है?
हमारी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर आज कई ढेर सारे असुर उठ
खड़ हुए हैं जो रावण से भी अधिक खतरनाक हैं परन्तु हमने
कभी उनका संहार करने की कोशिश नहीं की क्यूंकि हमारा ध्यान
उनपे कभी गया ही नहीं तथा उन्होने दबे पांव ढेर
सारी बुराइयों को हमारे समाज में प्रवेश करा दिया ताकि वो हमें
हरा सकें क्यूकि उन्हे पता है कि समाज के रास्ते आक्रमण करने से
उनकी जीत पक्की है।


अतः मित्रों उठो! जागो! और मृतक रावण के बजाए आज समाज में
व्याप्त इन बुराइयों रूपी असुरों का संहार करो, क्यूंकि अगर इन्हे जल्द
से जल्द ना हराया तो हमारी हार पक्की है तथा पतन भी पक्का है।

Sunday, July 14, 2013

समाजवादी पार्टी : लोहियावादी या मौकापरस्त

आज अखबार में एक न्यूज़ छपी है की कुशवाहा परिवार समाजवादी पार्टी में शामिल | शामिल कराना था मुलायम सिंह यादव को पर वो किन्ही कारणों से नहीं आये तो ये काम कराया राजेंद्र चौधरी ने और बाद में मुलायम और अखिलेश ने सभी का आभार प्रकट किया और कुशवाहा परिवार का सपा कुनबे में स्वागत किया |

इस न्यूज़ को पढने के बाद विश्वास हो गया की सपा कोई सैद्धांतिक पार्टी नहीं है ये एक मौकापरस्त दल है जो अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकता है, इनका कोई सिद्धांत नहीं है इनका कोई आदर्श नहीं है, ये लोहिया जी और लोकनायक जी का नाम स्वयं से जोड़ के उन महापुरुषों का अपमान कर रहे है|

बताते चलें की ये उसी कुशवाहा का परिवार है जो NRHM घोटाले का मुख्य आरोपी है और ये अभी जेल में बंद है और इसके विरुद्ध सतर्कता अधिष्ठान मुक़दमा चलाने की तैयारी कर रहा था |

लेकिन अब तो इस बात की पूरी उम्मीद है की उसे बचा लिया जायेगा |

सपा सरकार बने लगभग डेढ़ साल हो चुके हैं परन्तु इन वर्षों में सपा ने ऐसे कई कार्य किये हैं की लगने लगा है की सपा के वे सभी वादे जो उन्होंने चुनाव से पहले किये थे वे सभी झूठे हैं|

सपा ने चुनावों में निम्न प्रमुख वादे किये थे-

१). किसी दागी को सपा में पनाह नही मिलेगी|

२). कानून-व्यवस्था के मुद्दे पे कोई समझौता नहीं होगा|

३). माया सरकार के भ्रष्टाचारियों को सलाखों के पीछे भेजा जायेगा|

४). बेईमान अफसरों को दण्डित किया जायेगा|

५). ईमानदारी से काम करने वाले अफसरों को प्रोत्साहित किया जायेगा|
आदि आदि ...

लेकिन इन वर्षों में इन सभी वादों को केवल वादा बना के रखा गया है इन पर कोई अमल नही हुआ और अब तो ऐसा लगने लगा है की सपा सरकर इन वादों पे अमल तो नहीं करना चाहती अपित उसे तोड़ना जरूर चाहती है|

चुनाव से पूर्व अखिलेश यादव ने डी.पी. यादव को पार्टी में नहीं लिया यह कहते हुए की वो बाहुबली हैं और बाहुबलियों की सपा में कोई जगह नहीं है परन्तु सरकार बनते ही वो इन सब बातों को भूल गये और उन्होंने अन्ना शुक्ला जैसे गुंडों को न केवल पार्टी में लिया अपितु लोकसभा का टिकेट भी दिया |

बेईमान आई.ए.एस. प्रदीप शुक्ल को जमानत से छूटते ही तुरंत पोस्टिंग दी और जब जग हसाई हुई तो पद वापस लिया गया, माया सरकार के कई भ्रष्ट अधिकारीयों को उच्च पैड्स दिए गए|
ईमानदार अधिकारीयों का बार बार तबादला किया गया |

और अब कुशवाहा परिवार को सपा में शामिल करने से उनके भ्रष्टचारियों को जेल भेजने के वादे पे भी प्रश्नचिन्ह लग गया है|

इन सभी फैसलों से जनता के मन में निम्न प्रश्न उठाने लगे हैं-

१). कि क्या अखिलेश यादव का चुनाव पूर्व डी.पी.यादव पर अख्तियार किया गया रुख केवल चुनावी सोबाजी थी?

२). कि क्या अखिलेश यादव की राय में एक बाहुबली अपराधी है और एक भ्रष्टाचारी अपराधी नहीं है?

३). कि क्या अखिलेश यादव की राय में आर्थिक अपराध कोई अपराध नहीं है?

४). कि क्या मुलायम सिंह यादव की राजनीति का स्तर इतना गिर गया है की वो अपनी पार्टी के फायदे के लिए देश की अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुचने वाले भ्रष्टाचारियों को बचाएंगे |

५). कि क्या समाजवादी पार्टी एक मौकापरस्त पार्टी है?

६). कि क्या सपा का कोई राजनीतिक सिद्धांत और आदर्श नहीं है?

७). कि क्या सपा माया सरकार के घोटालेबाजों को सजा दिलाने के लिए वास्तव में गंभीर है?

८). कि क्या जनता अखिलेश यादव पे भरोसा करके गलती कर बैठी है?

९). कि क्या मुलायम सिंह यादव को लोकसभा चुनाव में भी ऐसी सफलता मिलेगी?

१०). कि क्या सपा और बसपा का राजनीतिक चरित्र एक दुसरे से जुदा नहीं है?
 

Sunday, January 27, 2013

२६ जनवरी अर्थात अपना गणतंत्र

तो भइया आ गयी आज २६ जनवरी| पहले तो सभी भारतीय नागरिको को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं | 

हमने देखा है की आज के दिन हमारा पूरा देश बड़ी उत्साह के साथ हैप्पी रिपब्लिक डे कहता है और ये सिलसिला शुरू हो जाता है २५ तारीख से ही की २६ को शुभकामना देंगे तो मोबाइल ऑपरेटर एस.एम्.एस. के पैसे काटने लगेगा, अच्छा ही है आदमी को २ पैसा बचाने और ४ पैसा बनाने का सोचना चाहिए तभी तो देश तरक्की करेगा|

लोग ख़ुशी ख़ुशी सड़क किनारे खड़े छोटू से २ रुपैया ३ रुपैया देकर तिरंगा खरीदते हैं और बड़े शान से कहते हैं की छोटू हैप्पी रिपब्लिक डे| छोटू भी ख़ुशी से उनकी बात दुहराता है की हैप्पी रिपब्लिक डे|

ये गणतंत्र है जहाँ एक तरफ एक बच्चा चमचमाती कार से उतरता है और दूसरे बच्चे से जो गन्दा सा मैला सा कपडा पहने हुए है, भूखे पेट है, उससे तिरंगा खरीदता है|

बड़े बड़े साहब लोग उसी छोटू से तिरंगा खरीदते हैं और तुरंत लेके आगे बढ़ जाते हैं अपनी कार में आगे लगाते हैं गर्व से लेकिन उन्हें छोटू की "परिस्थिति" के बारे में सोचने का कोई औचित्य समझ नहीं आता,

"परिस्थिति" से याद आया की इन साहब लोगों को तो २७ जनवरी को तिरंगे की परिस्थिति का भी कोई ख़याल नहीं आता, अगले दिन ढेरों तिरंगो को आप गन्दी नालियों में पा सकते हैं पर किसी को ख़याल नहीं आता कि ये हमारे राष्ट्रीय ध्वज का अपमान है, कागज़ के बने तिरंगे के साथ ये तो संभव है की अगर किसी ने उस पर ध्यान दिया और उसे तिरंगे की महत्ता का ध्यान है तो वो उसे उठाकर जमीं में गाड़ दे लेकिन इन प्लास्टिक के बने तिरंगे का क्या किया जाये हुजूर, आप कुछ भी कर लो ये तो आप को मुंह चिढाते ही नजर आयेंगे के तुम तिरंगे की कितनी भी इज्जत कर लो कहीं भी दफना दो हम तो ख़त्म नहीं होंगे|

तो जनता की ये भी जिम्मेदारी तो बनती है की अगर आप २६ जनवरी ख़ुशी से मना रहे तो उतनी ही ख़ुशी से २७ जनवरी को तिरंगे की हिफाज़त करो |

और गणतंत्र कैसा है अपने भारत में उसके बारे में कुछ बताने की जरूरत नहीं| पिछले एक वर्ष में हुए आंदोलनों को किस तरह से कुचला है केंद्र सरकार ने उसकी तो व्याख्या की जरूरत नहीं है, चाहे वो रामदेव या अन्ना का आन्दोलन हो या "दामिनी" के लिए आन्दोलन,

तो एक दिन ख़ुशी ख़ुशी चिल्लाओ " हैप्पी रिपब्लिक डे और अगले दिन ही गणतंत्र को भूल जाओ"

क्यों की ज्यादा आन्दोलन करोगे उत्साह में गणतंत्र के, तो पुलिस की लाठियां और आंसू गैस के गोले, पानी की तेज बौछार तुम्हारा स्वागत करेगी|

महान भारतीय गणतंत्र दिवस की आप सभी को फिर से बधाईयाँ |

राहुल गाँधी की सरदार खान से मुलाकात...


जब "यूथ आइकॉन" राहुल गाँधी चुनाव में कैम्पेनिंग करने के लिए वास्सेपुर गए तो उनकी मुलाकात सरदार खान से हुई| अरे वही सरदार खान जो विधायक जे.पी.सिंह को कूटे थे एस.पी. ऑफिस में उसके बाप के सामने | तो भइया जब मुलाकात हुई तो कुछ इस ढंग से बात हुई उनकी.....


सरदार खान- केकरा के घर के हो..

राहुल गाँधी कुछ नहीं बोलते हैं...

सरदार खान- हमको पहचानते हो???

राहुल गांधी कुछ नहीं बोलते हैं...

सरदार खान- गूंगे हो??

राहुल गाँधी फिर कुछ नहीं बोलते हैं

सरदार खान- बियाह हो गया है??

राहुल गाँधी सिर हिलाते हैं नहीं...

सरदार खान- एतना बड़ा हो गये हो अभी तक बियाह नहीं हुआ है???

:-P

जनता की मांग पे

एक पार्टी में एक सज्जन को अभी कुछ दिनों पहले उपाध्यक्ष बनाया गया है और कहा जा रहा की वो अब पार्टी में न. २ की पोजिसन पे हो गये, पर मुझे नहीं लगता की ऐसा कुछ है, क्यों के उपाध्यक्ष बनने से पहले भी वही न. २ पे थे, खैर ये तो रही उस पार्टी की अंदरूनी बात वे जो चाहे वो करें हमे उससे क्या,

हमे तो ये कहना है की जब वो उपाध्यक्ष बने तो उसके बाद सारे शहर को पोस्टर बैनर से भर दिया उनके दल के लोगों ने की "जनता की भारी की मांग को ध्यान में रखते हुए" माननीय फलां को उपाध्यक्ष बनाया गया, कमोबेश यही हेडलाइंस अखबारों में भी पढने को मिलीं अगले सुबह|

ये सब पढ़ के मुझे ये याद आया के सहर के कुछ सिनेमाघर जिनमे B या C GRADE की फिल्म्स जैसे- "जंगली जवानी" या "एक रात की कली" आदि लगती हैं, तो ऐसे ही पोस्टर पूरे शहर में लगते हैं की "जनता की भारी मांग पर भीड़पूर्ण प्रदर्शन" तारीख ** से |

लेकिन ये बात हमे कभी समझ नहीं आई की ना तो मैंने ही कभी ऐसी मांग की और ना ही जिन्हें मैं जानता हूँ ना ही उन्होंने कभी ऐसी मांग की और ना ही उनके जानने वालों ने , तो भइया कहा से आ गयी "जनता की मांग"?????

अब उन सज्जन को किस जनता की मांग पे उपाध्यक्ष बनाया गया ये तो सब लोग समझ ही गये होंगे ऊपर की कहानी पढने के बाद..:-D
 

*प्रेरणा आलोक पुराणिक जी से प्राप्त*

मजहबी विवादों से व्यथित कैफ़ी आज़मी जी का शेर

बरसों पहले कैफ़ी आज़मी साहब ने लखनऊ में दो फिरकों के बीच होने वाले विवाद से आहत होकर एक नज़्म कही थी. आज ज़रूरत है कि हम उसे एक बार फिर पढ़ें और समझें.

अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ, लहू तो नहीं 
ये कोई और जगह है ये लखनऊ तो नहीं 
यहाँ तो चलती हैं छुरिया ज़ुबाँ से पहले 
ये मीर अनीस की, आतिश की गुफ़्तगू तो नहीं 
चमक रहा है जो दामन पे दोनों फ़िरक़ों के 
बग़ौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं :(

बदले हैं अंदाज़ ज़नाब आपके

दोस्त कहतें हैं की तुम्हारी दोस्ती में अब वो बात नहीं रही "वैभव",
बस चंद महीनों की औपचारिकता बाकी है|
तुम अकेले ही आये थे नवाबों की नगरी में,
जाओगे अकेले ही इस ख्वाबों की नगरी से|
तुम थे ही हमारे लिए बस एक अजनबी,
जैसे आये थे वैसे ही तो जाओगे|