Sunday, January 27, 2013

२६ जनवरी अर्थात अपना गणतंत्र

तो भइया आ गयी आज २६ जनवरी| पहले तो सभी भारतीय नागरिको को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं | 

हमने देखा है की आज के दिन हमारा पूरा देश बड़ी उत्साह के साथ हैप्पी रिपब्लिक डे कहता है और ये सिलसिला शुरू हो जाता है २५ तारीख से ही की २६ को शुभकामना देंगे तो मोबाइल ऑपरेटर एस.एम्.एस. के पैसे काटने लगेगा, अच्छा ही है आदमी को २ पैसा बचाने और ४ पैसा बनाने का सोचना चाहिए तभी तो देश तरक्की करेगा|

लोग ख़ुशी ख़ुशी सड़क किनारे खड़े छोटू से २ रुपैया ३ रुपैया देकर तिरंगा खरीदते हैं और बड़े शान से कहते हैं की छोटू हैप्पी रिपब्लिक डे| छोटू भी ख़ुशी से उनकी बात दुहराता है की हैप्पी रिपब्लिक डे|

ये गणतंत्र है जहाँ एक तरफ एक बच्चा चमचमाती कार से उतरता है और दूसरे बच्चे से जो गन्दा सा मैला सा कपडा पहने हुए है, भूखे पेट है, उससे तिरंगा खरीदता है|

बड़े बड़े साहब लोग उसी छोटू से तिरंगा खरीदते हैं और तुरंत लेके आगे बढ़ जाते हैं अपनी कार में आगे लगाते हैं गर्व से लेकिन उन्हें छोटू की "परिस्थिति" के बारे में सोचने का कोई औचित्य समझ नहीं आता,

"परिस्थिति" से याद आया की इन साहब लोगों को तो २७ जनवरी को तिरंगे की परिस्थिति का भी कोई ख़याल नहीं आता, अगले दिन ढेरों तिरंगो को आप गन्दी नालियों में पा सकते हैं पर किसी को ख़याल नहीं आता कि ये हमारे राष्ट्रीय ध्वज का अपमान है, कागज़ के बने तिरंगे के साथ ये तो संभव है की अगर किसी ने उस पर ध्यान दिया और उसे तिरंगे की महत्ता का ध्यान है तो वो उसे उठाकर जमीं में गाड़ दे लेकिन इन प्लास्टिक के बने तिरंगे का क्या किया जाये हुजूर, आप कुछ भी कर लो ये तो आप को मुंह चिढाते ही नजर आयेंगे के तुम तिरंगे की कितनी भी इज्जत कर लो कहीं भी दफना दो हम तो ख़त्म नहीं होंगे|

तो जनता की ये भी जिम्मेदारी तो बनती है की अगर आप २६ जनवरी ख़ुशी से मना रहे तो उतनी ही ख़ुशी से २७ जनवरी को तिरंगे की हिफाज़त करो |

और गणतंत्र कैसा है अपने भारत में उसके बारे में कुछ बताने की जरूरत नहीं| पिछले एक वर्ष में हुए आंदोलनों को किस तरह से कुचला है केंद्र सरकार ने उसकी तो व्याख्या की जरूरत नहीं है, चाहे वो रामदेव या अन्ना का आन्दोलन हो या "दामिनी" के लिए आन्दोलन,

तो एक दिन ख़ुशी ख़ुशी चिल्लाओ " हैप्पी रिपब्लिक डे और अगले दिन ही गणतंत्र को भूल जाओ"

क्यों की ज्यादा आन्दोलन करोगे उत्साह में गणतंत्र के, तो पुलिस की लाठियां और आंसू गैस के गोले, पानी की तेज बौछार तुम्हारा स्वागत करेगी|

महान भारतीय गणतंत्र दिवस की आप सभी को फिर से बधाईयाँ |

राहुल गाँधी की सरदार खान से मुलाकात...


जब "यूथ आइकॉन" राहुल गाँधी चुनाव में कैम्पेनिंग करने के लिए वास्सेपुर गए तो उनकी मुलाकात सरदार खान से हुई| अरे वही सरदार खान जो विधायक जे.पी.सिंह को कूटे थे एस.पी. ऑफिस में उसके बाप के सामने | तो भइया जब मुलाकात हुई तो कुछ इस ढंग से बात हुई उनकी.....


सरदार खान- केकरा के घर के हो..

राहुल गाँधी कुछ नहीं बोलते हैं...

सरदार खान- हमको पहचानते हो???

राहुल गांधी कुछ नहीं बोलते हैं...

सरदार खान- गूंगे हो??

राहुल गाँधी फिर कुछ नहीं बोलते हैं

सरदार खान- बियाह हो गया है??

राहुल गाँधी सिर हिलाते हैं नहीं...

सरदार खान- एतना बड़ा हो गये हो अभी तक बियाह नहीं हुआ है???

:-P

जनता की मांग पे

एक पार्टी में एक सज्जन को अभी कुछ दिनों पहले उपाध्यक्ष बनाया गया है और कहा जा रहा की वो अब पार्टी में न. २ की पोजिसन पे हो गये, पर मुझे नहीं लगता की ऐसा कुछ है, क्यों के उपाध्यक्ष बनने से पहले भी वही न. २ पे थे, खैर ये तो रही उस पार्टी की अंदरूनी बात वे जो चाहे वो करें हमे उससे क्या,

हमे तो ये कहना है की जब वो उपाध्यक्ष बने तो उसके बाद सारे शहर को पोस्टर बैनर से भर दिया उनके दल के लोगों ने की "जनता की भारी की मांग को ध्यान में रखते हुए" माननीय फलां को उपाध्यक्ष बनाया गया, कमोबेश यही हेडलाइंस अखबारों में भी पढने को मिलीं अगले सुबह|

ये सब पढ़ के मुझे ये याद आया के सहर के कुछ सिनेमाघर जिनमे B या C GRADE की फिल्म्स जैसे- "जंगली जवानी" या "एक रात की कली" आदि लगती हैं, तो ऐसे ही पोस्टर पूरे शहर में लगते हैं की "जनता की भारी मांग पर भीड़पूर्ण प्रदर्शन" तारीख ** से |

लेकिन ये बात हमे कभी समझ नहीं आई की ना तो मैंने ही कभी ऐसी मांग की और ना ही जिन्हें मैं जानता हूँ ना ही उन्होंने कभी ऐसी मांग की और ना ही उनके जानने वालों ने , तो भइया कहा से आ गयी "जनता की मांग"?????

अब उन सज्जन को किस जनता की मांग पे उपाध्यक्ष बनाया गया ये तो सब लोग समझ ही गये होंगे ऊपर की कहानी पढने के बाद..:-D
 

*प्रेरणा आलोक पुराणिक जी से प्राप्त*

मजहबी विवादों से व्यथित कैफ़ी आज़मी जी का शेर

बरसों पहले कैफ़ी आज़मी साहब ने लखनऊ में दो फिरकों के बीच होने वाले विवाद से आहत होकर एक नज़्म कही थी. आज ज़रूरत है कि हम उसे एक बार फिर पढ़ें और समझें.

अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ, लहू तो नहीं 
ये कोई और जगह है ये लखनऊ तो नहीं 
यहाँ तो चलती हैं छुरिया ज़ुबाँ से पहले 
ये मीर अनीस की, आतिश की गुफ़्तगू तो नहीं 
चमक रहा है जो दामन पे दोनों फ़िरक़ों के 
बग़ौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं :(

बदले हैं अंदाज़ ज़नाब आपके

दोस्त कहतें हैं की तुम्हारी दोस्ती में अब वो बात नहीं रही "वैभव",
बस चंद महीनों की औपचारिकता बाकी है|
तुम अकेले ही आये थे नवाबों की नगरी में,
जाओगे अकेले ही इस ख्वाबों की नगरी से|
तुम थे ही हमारे लिए बस एक अजनबी,
जैसे आये थे वैसे ही तो जाओगे|